जानता हूँ तुम सो गयी हो, मुझे पढ़ते हुए..
मगर मैं रातभर जागूँगा, तुम्हें लिखते हुए…!
Dil ke jazbaati lafzon ki ek mehfil ! | दिल के जज्बाती लफ्जो की एक महफ़िल !
जानता हूँ तुम सो गयी हो, मुझे पढ़ते हुए..
मगर मैं रातभर जागूँगा, तुम्हें लिखते हुए…!
कमाई छोटी या बड़ी हो सकती है…
पर रोटी की साइज़ तो सब घर में एक जैसी होती है।
लोग पत्थर उठाए फिरते हैं
और हम ग़ालिब-ऐ-दिवान उठाए फिरते है
हौसलों का, हिम्मतों का इम्तेहाँ है ज़िन्दगी
जो मज़ा मुश्क़िल में है, वो ख़ाक़ आसानी में है
सर झुकाने से नमाज़ें अदा नहीं होती…
दिल झुकाना पड़ता है इबादत के लिए…!
पहले मैं होशियार था,
इसलिए दुनिया बदलने चला था,
आज मैं समझदार हूँ,
इसलिए खुद को बदल रहा हूँ।।
बैठ जाता हूं मिट्टी पे अक्सर…
क्योंकि मुझे अपनी औकात अच्छी लगती है..
मैंने समंदर से सीखा है जीने का सलीक़ा,
चुपचाप से बहना और अपनी मौज में रहना ।।
ऐसा नहीं है कि मुझमें कोई ऐब नहीं है पर सच
कहता हूँ मुझमे कोई फरेब नहीं हैं !
जल जाते हैं मेरे अंदाज़ से मेरे दुश्मन क्यूंकि एक
मुद्दत से मैंने
न मोहब्बत बदली और न दोस्त बदले!!
दुनिया की इस रीत में सारे हैं मुसाफ़िर
कल आए थे-कुछ आज, तो कुछ लोग कल गए
कल अपने आप को देखा था मां की आंखो मे,
यह आईना मुझको बुढा नहीं बताता है..
तक़्दीर की बुलन्दी भी लोगों को खल गयी
निकला ज़रूर दम, मगर अरमाँ निकल गए
दिल में रहा न जोश तो दिल-दिल नहीं रहे
वो दिल ही क्या जो अक़्ल के हाथों सँभल गए
माचिस की तीलियों की तरह उम्र क्या ढली
सब जात-पाँत ख़ाक़ की सूरत में ढल गए