अजब दुनिया है

अजब दुनिया है नाशायर यहाँ पर सर उठाते हैं
जो शायर हैं वो महफ़िल में दरी- चादर उठाते हैं

तुम्हारे शहर में मय्यत को सब काँधा नहीं देते
हमारे गाँव में छप्पर भी सब मिल कर उठाते हैं

इन्हें फ़िरक़ापरस्ती मत सिखा देना कि ये बच्चे
ज़मीं से चूमकर तितली के टूटे पर उठाते हैं

समुन्दर के सफ़र से वापसी का क्या भरोसा है
तो ऐ साहिल, ख़ुदा हाफ़िज़ कि हम लंगर उठाते हैं

ग़ज़ल हम तेरे आशिक़ हैं मगर इस पेट की ख़ातिर
क़लम किस पर उठाना था क़लम किसपर उठाते हैं

बुरे चेहरों की जानिब देखने की हद भी होती है
सँभलना आईनाख़ानो, कि हम पत्थर उठाते हैं

जमीन जल चुकी है

जमीन जल चुकी है आसमान बाकी है,
दरख्तों तुम्हारा इम्तहान बाकी है…!

वो जो खेतों की मेढ़ों पर उदास बैठे हैं,
उन्हीं की आँखों में अब तक ईमान बाकी है..!!

बादलों अब तो बरस जाओ सूखी जमीनों पर,

किसी का मकान गिरवी है और किसी का लगान बाकी है…!!!

सीख लिया है

हमने भी कलम रखना सीख लिया है,
यारों! जिस दिन वो कहेगी,
‘मुझे तुमसे मोहब्बत है’,
दस्तख़त करवा लूँगा.!!