जरुरतों ने कुचल डाला है मासूमियत को साहब
यूं.. वक्त से पहले ही बचपन रूठ गया|
Dil ke jazbaati lafzon ki ek mehfil ! | दिल के जज्बाती लफ्जो की एक महफ़िल !
जरुरतों ने कुचल डाला है मासूमियत को साहब
यूं.. वक्त से पहले ही बचपन रूठ गया|
हर घड़ी ख़ुद से उलझना है मुक़द्दर मेरा
मैं ही कश्ती हूँ मुझी में है समंदर मेरा
एक से हो गए मौसमों के चेहरे सारे
मेरी आँखों से कहीं खो गया मंज़र मेरा
किससे पूछूँ कि कहाँ गुम हूँ बरसों से
हर जगह ढूँढता फिरता है मुझे घर मेरा
मुद्दतें बीत गईं इक ख़्वाब सुहाना देखे
जागता रहता है हर नींद में बिस्तर मेरा
आईना देखके निकला था मैं घर से बाहर
आज तक हाथ में महफ़ूज़ है पत्थर मेरा
मुझे अपने लफ़्जो से आज भी शिकायत है,
ये उस वक़त चुप हो गये जब इन्हें बोलना था…
कुछ ऐसे लगाव और चाहते होती हैं हाथो में हाथ नही होते
और रूह से रूह बंधी होती है……
ज़रा ज़िद्दी हूँ ख़्वाब देखने से बाज़ नहीं आता,
इतनी सी बात पर हकीक़तें रूठ जाती है मुझसे…
पाकीज़ा दिलों की तो ,
कुछ बात ही अलग है ,
मिलता है जिससे भी ,
वजूद महक जाता है ॥
फासला भी ज़रूरी है चिराग रोशन करते वक्त
तजुर्बा यह हाथ आया हाथ जल जाने के बाद|
सोचता हूँ एक शमशान बना लुँ
दिल के अंदर
मरती है रोज ख्वाईशें
एक एक करके….!!!!
अजब चिराग हूँ दिन रात जलता रहता हूँ
थक गया हूँ हवा से कहो बुझाये मुझे|
कसम ले लो जो महफ़िल में तुम्हे दानिश्ता देखा हो
नजर आखिर नजर है बेइरादा उठ गयी होगी ……