क्या लिखू जिंदगी के बारे में..वो लोग ही बिछड़ गए जो जिंदगी हुवा करते थे
Category: शर्म शायरी
शहर में देखो
शहर में देखो जवानी में बुढ़ापा आ गया
पर बुढ़ापे में जवानी, है अभी तक गांव मे
गलत बातों को
गलत बातों को ठहराने सही हर बार संसद में
कोई जूते लगाता है कोई चप्पल चलाता है
अपना ही चेहरा
बीवी, बच्चे, सड़कें, दफ्तर और तनख्वाह के चक्कर में
मैं घर से अपना ही चेहरा पढ़कर जाना भूल गया
तुम जड़ पकड़ते
कभी तुम जड़ पकड़ते हो कभी शाखों को गिनते हो
हवा से पूछ लो न ये शजर कितना पुराना है
यहीं रही है
यहीं रही है यहीं रहेगी ये शानो शौकत ज़मीन दौलत
फकीर हो या नवाब सबको, कफन वही ढाई गज मिला है
किसी शहर के
किसी शहर के सगे नहीं हैं ये चहचहाते हुए परिंदे
तभी तलक ये करें बसेरा दरख़्त जब तक हरा भरा है
आस्था को ठेस
आस्था को ठेस पहुंची तो लगे तुम चीखने
मंदिरों में धर्म भी है कि नहीं ये तो पढो
इक इंसान को
ज़हर जो शंकर बनाये आपको तो खाइए
वरना इक इंसान को विषधर न होने दीजिये
तुमको देखा तो
तुमको देखा तो फिर उसको ना देखा
हमने….!!
चाँद कहता रहा कई बार कि मैं चाँद हूं, मैं
चाँद हूँ….!!