जाने कभी गुलाब

जाने कभी गुलाब लगती हे
जाने कभी शबाब लगती हे
तेरी आखें ही हमें बहारों का ख्बाब लगती हे
में पिए रहु या न पिए रहु,
लड़खड़ाकर ही चलता हु
क्योकि तेरी गली कि हवा ही मुझे शराब लगती हे

जिँदगी नहीं लिखी

कमी तेरे नसीबों में रही होगी, कि जिँदगी नहीं लिखी तेरे संग बिताने को..
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मैने तो हर संभव कोशिश की, तुझे अपना बनाने को..!!

सोचा ना था

सोचा ना था ज़िंदगी ऐसे फिर से मिलेगी जीने के लिये,
आँख को प्यास लगेगी अपने ही आँसू पीने के लिये…!!!

तुम ये ग़लत

तुम ये ग़लत कहते हो कि मेरा कुछ पता नहीं है

तुमने ढूँढा ही नहीं मुझे ढूँढ ने की हद तक