मेरा है मुझमें

अलग दुनिया से हटकर भी कोई दुनिया है मुझमें,
फ़क़त रहमत है उसकी और क्या मेरा है मुझमें.
मैं अपनी मौज में बहता रहा हूँ सूख कर भी,
ख़ुदा ही जानता है कौनसा दरिया है मुझमें.
इमारत तो बड़ी है पर कहाँ इसमें रहूँ मैं,
न हो जिसमें घुटन वो कौनसा कमरा है मुझमें.
दिलासों का कोई भी अब असर होता नहीं है,
न जाने कौन है जो चीख़ता रहता है मुझमें.
नहीं बहला सका हूँ ज़ीष्त का देकर खिलौना
कोई अहसास बच्चे की तरह रोता है मुझमें.
सभी बढ़ते हुए क्यों आ रहे हैं मेरी जानिब,
कहाँ जाता है आखि़र कौनसा रस्ता है मुझमें.

बचपन में जब

बचपन में जब चाहा हँस लेते थे,
जहाँ

चाहा रो सकते थे.
अब मुस्कान को तमीज़ चाहिए,
अश्कों को तनहाई ..

ऐ उम्र कुछ

ऐ उम्र कुछ कहा मैंने,

शायद तूने सुना नहीं….
तू छीन सकती है बचपन मेरा , बचपना नहीं…

मां जो भी बनाए उसे

मां जो भी बनाए उसे बिना नखरे किये खा लिया करो
क्युंकि दुनिया में ऐसे लोग भी है जिनके पास या तो खाना नही होता या मां नही होती
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