इस अजनबी शहर में ये पत्थर कहाँ से आया फराज़
लोगों की इस भीड़ में कोई अपना जरूर है
Category: जिंदगी शायरी
बहुत ही सादा हू
बहुत ही सादा हू मैं और ज़माना अय्यार..
खुदा करे कि मुझे शहर की हवा न लगे….
बता देती है
नजरें सब बता देती है
नफ़रतें भी,
हसरतें भी
हर रोज कयामत
तेरे बगैर जीने का तजुर्बा भी हसीन होगा….हर रोज मरूंगा मैं, हर रोज कयामत होगी…..
गुफ़्तगू नहीं करते
लफ़्ज़ जब तक वज़ू नहीं करते
हम तेरी गुफ़्तगू नहीं करते
तू मिला है ऐसे लोगो को
जो तेरी आरज़ू नहीं करते
तुम्हें ग़ैरों से कब
तुम्हें ग़ैरों से कब
फुर्सत हम अपने ग़म से कब ख़ाली
चलो बस हो चुका मिलना न
तुम ख़ाली न हम ख़ाली.
मैं डूबता हूँ
ना जाने किसकी
दुआओं का फैज़ है मुझपर,
मैं डूबता हूँ और दरिया उछाल देता है..
शर्म आती है
जब कभी खुद की
हरकतों पर शर्म आती है …..
चुपके से भगवान को भोग खिला देता
हूँ …..
कोई तो पैमाना
काश कोई तो पैमाना होता मोहब्बत नापने का
तो शान से तेरे सामने आते सबुत के साथ
खिलाफत मे ज़िंदगी
खिलाफत मे ज़िंदगी की ये हश्र भी हो गया,
मकबरा तो बही है पर मुर्दों ने,कब्रस्तान बदल दिये,