अजीब सी बस्ती में ठिकाना है मेरा।
जहाँ लोग मिलते कम, झांकते ज़्यादा है।
Category: शर्म शायरी
मुहब्बत की कोई
मुहब्बत की कोई कीमत मुकर्रर हो नही सकती है,
ये जिस कीमत पे मिल जाये उसी कीमत पे सस्ती है
चलने दो जरा
चलने दो जरा आँधियाँ हकीकत की,
न जाने कौन से झोंके मैं अपनो के मुखौटे उड़ जाये।
रोज़ बदलो न इनको
रोज़ बदलो न इनको यूँ लिबासों की तरह,
ये रिश्तें हैं जनाब बाज़ारों में कहाँ मिलते हैं।
ख्वाहिशों की चादर
ख्वाहिशों की चादर तो कब की तार तार हो चुकी…
देखते हैं वक़्त की रफूगिरि क्या कमाल करती हैं…
करीब ना होते हुए भी
करीब ना होते हुए भी करीब
पाओगे हमें क्योंकि…
एहसास बन के दिल में उतरना
आदत है मेरी….
आँखे ज़िसे चुने
आँखे ज़िसे चुने वो सही हो या ना हो,
दिल से किया हुआ चुनाव कभी गलत नहीं होते..!!
कैसे बदलदू मै
कैसे बदलदू मै फितरत ए अपनी
मूजे तुम्हें सोचते रहनेकी आदत सी हो गई है….
बदन के घाव
बदन के घाव दिखाकर जो अपना पेट भरता है,
सुना है वो भिखारी जख्म भर जाने से डरता है।
ख़त्म हो भी तो कैसे
ख़त्म हो भी तो कैसे, ये मंजिलो की आरजू,
ये रास्ते है के रुकते नहीं, और इक हम के झुकते नही।